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विमल चंद्र पाण्डेय
ई इलहाब्बाद है भइया
Author | विमल चंद्र पाण्डेय |
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Category | संस्मरण |
ISBN | 978-81-929221-8-9 |
Publication | दख़ल प्रकाशन |
Publishing Year | 2014 |
Edition | |
Price | ₹ 150 |
चारुलेखा मिश्र लिखती हैं –
लेखक पर किसी साहित्यक कृति जैसी चीज़ लिखने का दबाव नहीं था शायद इसलिए यह रचना ज़मीनी और जीवन के ज्यादा क़रीब बन पड़ी है। विमल का संस्मरण पढ़ते हुए पाठक से एक याराना सा स्थापित कर लेता है और कंधे पर हाथ रख बतियाते हुए आपको अपने स्मृति संसार का हिस्सा बना लेता है। आप पाते हैं कि यह दुनिया लेखक की नहीं आपके आसपास की दुनिया है बस नाम बदले हुए हैं। यह मात्र खूबसूरत यादों की दास्तान ही नहीं लगती वरन यह उन तमाम लोगों की बेबसी की कहानी भी कहती है जिनके किताबी आदर्श उनके जिंदा रहने की ज़रूरत के आगे लाचार नज़र आते हैं। आदर्श और सिद्धांत सिर्फ बातों में. बातें छद्म महत्वाकांक्षा और फैंटसी में तब्दील होती जाती हैं। एक तरफ पत्रकारिता धार्मिक मठाधीशों से गिफ्ट पाने का हो़ड़ कर रही होती है तो दूसरी तरफ एक पत्रकार किसी जनसंघी नेता की चरण वंदना कर रहा होता है। धर्मनिरपेक्ष सरकारी तंत्र की सांप्रदायिकता की स्थिति यह है कि रचना की मौलिक अभिव्यक्ति सिर धुनती नज़र आती है। संविधान के मौलिक अधिकार भी किसी पुस्तक में दबे दबे शायद अपने लिखे जाने पर अफ़सोस व्यक्त करते होंगे। लेखक हर दृश्य पर चुटकी लेते तो चलता है पर आपके मन मे हास्य के साथ सवाल पैदा करते जाता है। वह बिना किसी शोरगुल के कब आपको सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिंता और अपने सवालों से जोड़ लेता है, आपको पता नहीं चलता। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो इस असाहित्यिक कृति में समाज अपने विभिन्न पक्षों के साथ बहुत साफ़ नज़र आता है। है। एक निम्न मध्यमवर्गीय शहर का संघर्षशील परिवेश, वयक्ति वैचित्र्य, मानव स्वभाव की कमजोरियाँ, कुठा, स्वप्न, फैंटसी, दिखावे के आदर्श, अपने पूरी मासूमियत के साथ दिखाई पड़ते हैं।
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